इस्लाम का रहस्यवादी चेहरा है सूफीवाद

हसन जमालपुरी

सूफीवाद इस्लाम का रहस्यवादी चेहरा है। सच पूछिए तो भारत में इस्लाम का जो स्वरूप आपको देखने को मिलता है, उसमें सूफीवाद की महत्वपूर्ण भूमिका है। सूफीवाद को समझने के लिए भारत के भक्ति परंपरा को समझना बेहद जरूरी है। सूफीवाद की तुलना भारतीय भक्ति परंपरा से नहीं की जा सकती है लेकिन इसे भक्ति वाद के माध्यम से समझा जा सकता है। सूफी संतों में मलिक मोहम्मद जायसी का बड़ा नाम है। हिंदी साहित्य में कवियों की जो श्रृंखला है उसमें भी मलिक मोहम्मद जायसी की बड़ी भूमिका रही है। जायसी के द्वारा रचित ग्रंथ पद्मावत में जिस चिंतन को प्रदर्शित किया गया है वह चिंतन सूफीवाद का आधार माना जाता है। सूफीवाद में भौतिकता का स्थान कम होता है लेकिन इसमें आत्मनिरीक्षण और ईश्वर की खोज के साथ ही साथ आत्मज्ञान पर ज्यादा जोर दिया जाता है।

आंतरिक ज्ञान की यह परंपरा सांसारिक वस्तुओं से मुक्त हो कर उसे पवित्रता में तब तक उकसाती है जब तक कि वह ईश्वर और आत्मा के बीच की दुरी को हटा न दे। सूफी इस्लाम, तरिकत के सिद्धांत पर विश्वास करता है- धार्मिक आदेश और गिल्ड की घटना। ये भारत जैसे धार्मिक रूप से विविध देशों में धर्मनिरपेक्ष और बहुलवादी संस्कृति के विकास पर प्रभाव डालते हैं। इसने सहिष्णुता और विविधता को कुछ हद तक बाहरी रूप में पोषित किया है, जो चरमपंथ के हर रूप को अस्वीकार करता है। आज के अशांत भारत में, जहाँ धर्मनिरपेक्षता और धार्मिक सहिष्णुता के राजनीतिक स्थान को चरमपंथी विचारधाराओं द्वारा तिरोहित करने का प्रयास किया जा रहा है ताकि सामाजिक दरारें खोली जा सके और हमें अंधकार में वापस धकेला जा सके, वही सूफीवाद हमें बहुलतावादी और बहुआयामी धार्मिक परंपराओं में विश्वास करने की प्रेरणा देता है।

सच पूछिए तो सूफी इस्लाम हमें धर्मनिरपेक्ष और समतामूलक परंपरा को संपोषित करने की प्रेरणा प्रदान करता है। मैं यहां इस्लाम के किसी पंथ की आलोचना नहीं करूंगा लेकिन जिस पंथ में अन्य संस्कृति, परंपरा और मान्यताओं की कद्र ना हो वह पंत कभी अस्थाई रूप से समाज को प्रभावित नहीं करता है। सूफी इस्लाम हमें एक विकल्प प्रदान करता है। इतिहास गवाह है कि सूफीवाद, इस्लामिक विचार को एकीकृत मंच देता है जिसमे धार्मिक, अनुभागीय और सांप्रदायिक मतभेदों को दूर करने का प्रयास किया गया है। सूफी इस्लाम, उनके विचार, को अनुयाइयो ने जिन देशों में प्रवेश किया है, उनकी विविधता को जीने और पोषित करने के सिद्धांत पर जोर दिया है। भारतीय संदर्भ में, सूफी इस्लाम ने धर्मों के बीच पारस्परिक सम्मान के सिद्धांत को बरकरार रखा है। भारत में शुरुआती सूफी संतों द्वारा स्थापित अंतरसंबंधों ने आस्था की विभिन्न प्रणालियों के बीच शांति की इस्लामी अवधारणा के प्रति अपनी निष्ठा का प्रदर्शन किया। सूफी इस्लाम, इस्लाम की पैगंबर मोहम्मद से विरासत में मिली धारणाओं में से एक है। यह माना जाता है कि पैगंबर कभी भी किसी के व्यक्तिगत मामलों के लिए नाराज नहीं हुए, लेकिन अपने दुश्मनों द्वारा दी गई सभी व्यक्तिगत पीड़ाओं को माफ कर दिया।
ऐतिहासिक रूप से, मुसलमानों ने भारत में अन्य धर्मों के साथ सहज संबंध बनाए रखे हैं। सूफी इस्लाम की अवधारणाओं को शांति और सद्भाव को आगे बढ़ाने के तरीके के रूप में देखा जाना चाहिए। सूफीवाद ने आध्यात्मिक आत्म-विकास के माध्यम से मानव जाति की सेवा करने पर जोर दिया है और यह भारतीय संदर्भ में साबित हुआ है। भारत में सूफीवाद को कभी इस्लामिक संप्रदाय के रूप में नहीं देखा गया है, बल्कि इसे जीवन जीने के तरीका के रूप में देखा गया। इसके अलावा, इसकी सांस्कृतिक संश्लेषण हिंदू मुस्लिम एकता के लिए एक आधार प्रदान कर सकता है जिसका देश में इस समय थोड़ा अभाव है। सूफी इस्लाम धर्मशास्त्रीय परंपराओं के बीच बुनियादी असहमति को मानता तो है, लेकिन यह भी मानता है कि इनसे शांति और आपसी समझ के जरिए निपटा जा सकता है।

वर्तमान भारतीय राजनीतिक माहौल में धार्मिक परंपराओं विशेष रूप से हिंदू-मुस्लिमों को शांति और आपसी समझ के सिद्धांत पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है ताकि लोकतांत्रिक क्षेत्र सुचारू रूप से कार्य करे और आपसी सद्भाव के सिद्धांत को बरकरार रखा जाए। इसी कारण हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सूफीवाद को शांति, सह-अस्तित्व, करुणा और समानता की आवाज़ मानते हैं।

सूफी परंपरा पूरे भारत में मौजूद है। इसके संतों और विद्वानों ने हमेशा कट्टर और अतिवादी व्याख्याओं का विरोध किया है। उनका ध्यान हमेशा भारत की एकता, अखंडता और विविधता की रक्षा केन्द्रित रहा है। इस्लामी परंपरा के भीतर, सूफी इस्लाम का अनुमान है कि मुसलमानों को सैद्धांतिक मुद्दों और सांप्रदायिक मतभेदों से दूर रहना चाहिए ताकि इस्लाम का शांति का संदेश और अनुयायी पूरे विश्व में फैल जाएं।

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