शीर्ष अदालत ने कुछ अदालतों के रवैये को लेकर भी दिखाई सख्ती, राजस्थान HC के आदेश से खफा

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने इस सप्ताह दो बार हाईकोर्ट के आदेशों में खामी निकालते हुए निचली अदालत को फटकार लगाई थी। शीर्ष अदालत ने हाईकोर्ट्स पर न्यायिक अनुशासन का ठीक से पालन नहीं करने को लेकर टिप्पणी की थी। दरअसल, राजस्थान हाईकोर्ट ने एक नाबालिग के साथ रेप के आरोपी हिस्ट्रीशीटर को बिना कोई खास कारण बताए जमानत दे दिया था। इसी तरह इलाहाबाद हाईकोर्ट की एक बेंच ने हत्या के एक आरोपी को बरी कर दिया था लेकिन चौंकाने वाली बात ये थी कि जजमेंट फैसले के 5 महीने बाद दिया। 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट के एक बेंच के 9 महीने बाद और दिल्ली हाईकोर्ट के एक बेंच ने 10 महीने बाद जजमेंट के ऑपरेटिव आदेश को पकड़ा था। ऐसे में हाईकोर्ट के फैसलों को लेकर विश्वसनीयता की कमी सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से साफ दिखने लगी है।
राजस्थान हाईकोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट ने रेप के आरोपी हिस्ट्रीशीटर की जमानत याचिका खारिज करते हुए हाईकोर्ट के फैसले पर सख्त टिप्पणी की थी। शीर्ष अदालत ने कहा था कि आजकल ये ट्रेंड चल गया है कि जमानत मंजूर करने या नामंजूर करे के दौरान कोर्ट एक सामान्य टिप्पणी करते हैं कि तथ्य और परिस्थितियों को देखते हुए इसपर विचार किया जा सकता है। लेकिन ऐसे करते हुए कोई निश्चित कारण नहीं दिया जता है। शीर्ष अदालत के इस तरह के फैसले पलटने के बाद भी ऐसे आदेश दिए जा रहे हैं। चीफ जस्टिस एन वी रमन, जस्टिस कृष्णा मुरारी ने टिप्पणी की थी कि राजस्थान हाईकोर्ट ने जमानत देते वक्त जरूरी तथ्यों को नहीं देखा। जज केवल न्याय का ही बोझ ढोते बल्कि उन्हें ये भी देखना होता है कि न्याय हो। यहां हाईकोर्ट ने इस बाद की अनदेखी की कि जिसपर रेप का आरोप है उसपर 20 अन्य आपराधिक मामले भी दर्ज है।
कारण के साथ दिए गए फैसले में सहूलियत ये होती है कि न्यायपालिका का वक्त बचता है और अपील पर तुरंत फैसला करने में तुरंत आसानी होती है। इलाहाबाद होईकोर्ट ने कारण समेत फैसला देने में असफल रहा था जिसके कारण सुप्रीम कोर्ट को नए सिरे से सुनवाई का आदेश देना पड़ा था। इस मामले में 2009 में केस दर्ज हुआ था, एक ट्रायल कोर्ट ने 2012 में शख्स को दोषी माना था लेकिन 2019 में उसे बरी कर दिया गया था। शीर्ष अदालत ने इलाहाबाद हाईकोर्ट को इस मामले की फिर सुनवाई का आदेश दिया था। इस अदालत में 1.83 लाख आपराधिक मामले की सुनवाई पेंडिंग है और इसे पूरा करने मे 35 साल का वक्त लग सकता है।
विभिन्न स्तरों पर खराब फैसलों को लेकर अभीतक कोई संतोषजनक समाधान नहीं निकल पाया है। कॉलोजियम सिस्टम की जगह नेशनल जूडिशियल अप्वाइंटमेंट कमिशन का काफी विरोध हुआ था। इसी तरह निचली अदालतों के लिए अखिल भारतीय न्यायिक सेवा या नेशनल डिस्ट्रिक्ट रिक्रूटमेंट एग्जामिनेशन के प्रस्ताव भी ठंडे बस्ते में ही रहा। इस बीच, केंद्र सरकार से भिड़ंत और रिटायरमेंट उम्र 62 साल होने के कारण कॉलेजियम भी हाईकोर्ट के लिए अच्छे जजों को आकर्षित नहीं कर पा रहा है। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट कुछ पहुंच वाले याचिकाकर्ताओं के कारण भले ही कुछ खराब फैसलों को दुरुस्त कर पा रही हो लेकिन एक सच ये भी है कि जरूरी डेटा नहीं होने के कारण अभी भी कई खराब फैसलों की सुनवाई नहीं हो पाती है। कानून में खामियां गर्वनेंस के सभी रूपों पर प्रभाव डालता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *