नई दिल्ली
सुलभ शौचालय के संस्थापक बिंदेश्वर पाठक का मंगलवार को दिल्ली एम्स में निधन हो गया। एक ब्राह्मण परिवार में जन्म के बाद भारत को शौचमुक्त बनाने का उनका सफर मुश्किलों से भरा था। इस सफर में घरवालों से लेकर ससुराल तक का विरोध शामिल था। यहां तक कि एक बार उनके ससुर ने यहां तक कह दिया था कि मुझे अपना चेहरा मत दिखाना। इन सबके बावजूद गांधी जी का सपना अपनी आंखों में लिए बिंदेश्वर पाठक अपनी धुन में जुटे रहे। अपनी इसी धुन और लगन की बदौलत उन्होंने न सिर्फ सेफ और सस्ती शौचालय तकनीक विकसित की, बल्कि सुलभ शौचालय को एक इंटरनेशनल ब्रांड बना दिया।
फ्लश टॉयलेट डेवलप किया
बिंदेश्वर पाठक का जन्म साल 1943 में बिहार के वैशाली जिले में हुआ था। बताते हैं कि उनका घर काफी बड़ा था और इसमें कुल नौ करमे थे। इसके बावजूद घर में एक भी शौचालय नहीं था। नतीजा यह था कि सभी लोग शौच के लिए खेतों में जाया करते थे। इसके चलते महिलाओं को काफी परेशानी होती थी और वह अक्सर बीमार भी हो जाती थीं। इसको देखकर बिंदेश्वर के मन में बैठ गया कि उन्हें इस दिशा में कुछ काम करना है। उनकी सोच को दिशा तब मिली जब उन्होंने बिहार गांधी जन्म शताब्दी समारोह समिति में काम किया। यह साल था 1968-69। इसी दौरान समिति ने उन्हें एक खास जिम्मेदारी थी। यह जिम्मेदारी थी सुरक्षित और सस्ती शौचालय तकनीक को डेवलप करने की। इसके बाद बिंदेश्वर पाठक ने इसे अपने जीवन का मिशन बना लिया। साल 1970 में उन्होंने सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना की। उन्होंने दो गड्ढे वाले फ्लश टॉयलेट विकसित किए। यह संगठन मानवाधिकार समेत पर्यावरण, स्वच्छता और शिक्षा के क्षेत्र में काम करता है।
पिता हुए थे नाराज
हालांकि बिंदेश्वर के काम को लेकर उनके घर-परिवार में विरोध का माहौल था। आलम यह था कि छह साल की उम्र में उन्हें इस बात के लिए सजा मिली थी क्योंकि उन्होंने एक महिला मेहतर को छू लिया था। इतना ही नहीं, उनके पिता भी उनके काम-काज को लेकर नाराज रहा करते थे। बिंदेश्वर के ससुर ने तो यहां तक कह दिया था कि वह अपना चेहरा न दिखाएं। ससुर का कहना था कि अगर लोग उनसे पूछेंगे कि उनका दामाद काम क्या करता है तो वह क्या जवाब देंगे। उधर बिंदेश्वर अपने निश्चय पर दृढ़ थे कि उन्हें गांधी जी के सपने को पूरा करना है और मैला ढोने और खुले में शौच की समस्या से देश को मुक्त कराना है।