पति की सहमति के बिना पत्नी के गर्भपात कराने को क्रूरता कहा जा सकता है: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट

इंदौर

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की इंदौर पीठ ने हिंदू विवाह अधिनियम के तहत एक जोड़े के विवाह को भंग करने के पारिवारिक न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा। कोर्ट ने निर्णय में कहा कि "मामले के तथ्यों" के आधार पर, अगर कोई पत्नी अपने पति की सहमति के बिना गर्भावस्था को समाप्त करने का विकल्प चुनती है, तो उसे "क्रूरता" कहा जा सकता है।

ज‌स्टिस विवेक रूसिया और जस्टिस बिनोद कुमार द्विवेदी की खंडपीठ ने कहा, "निचली अदालत ने यह निष्कर्ष दर्ज किया है कि पति की सहमति के बिना गर्भावस्था को समाप्त करना भी क्रूरता के दायरे में आता है। उपरोक्त निष्कर्ष के संबंध में, इस न्यायालय का विचार है कि मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर गर्भावस्था की समाप्ति 'क्रूरता' शब्द के अंतर्गत आ सकती है।

इसके बाद न्यायालय ने कहा कि पारिवारिक न्यायालय ने अपने आदेश में कोई तथ्यात्मक या कानूनी त्रुटि नहीं की है। इसके बाद इसने पारिवारिक न्यायालय द्वारा क्रूरता और परित्याग के दोहरे आधार पर पारित निर्णय और डिक्री को बरकरार रखा और कहा कि यह "ठोस और विश्वसनीय साक्ष्य" पर आधारित है और इसमें किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।

पीठ ने कहा,

"केवल पत्नी ही है, जिसने अपने स्वयं के कुकर्मों से अपने पारिवारिक जीवन को बर्बाद कर दिया है, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, जो तलाक के डिक्री के लिए आधार बन गया। परिणामस्वरूप, यह अपील मे‌रिलेस है, विफल है और खारिज की जाती है"।

हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि 'क्रूरता' शब्द अधिनियम की धारा 13 के प्रयोजन के लिए मानसिक और शारीरिक क्रूरता को अपने दायरे में शामिल करता है। पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न निर्णयों का हवाला दिया, जिसमें विस्तार से बताया गया है कि किस प्रकार के कृत्य क्रूरता के दायरे में आ सकते हैं।

‌हाईकोर्ट ने शोभा रानी बनाम मधुकर रेड्डी (1988), रवि कुमार बनाम जुल्मीदेवी (2010), एनजी दास्ताने बनाम एस दास्ताने (1975) में सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का हवाला दिया, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया था कि क्रूरता व्यक्तिपरक है और इसे शामिल व्यक्तियों और उनके संबंधों की गतिशीलता के संदर्भ में समझा जाना चाहिए।

पीठ ने समर घोष बनाम जया घोष (2007) में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का भी हवाला दिया कि "मानसिक क्रूरता" क्या हो सकती है।

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कहा था कि जहां तथ्यों के आधार पर विवाह में अपूरणीय टूटन हुई है, वहां विवाह का विरोध करने वाला पक्ष तलाक और दूसरे पक्ष को वैवाहिक बंधन से मुक्त न होने देना, दूसरे पक्ष को मानसिक क्रूरता का कारण बनेगा।

इसके बाद पीठ ने कहा, "अधीनस्थ न्यायालय द्वारा दर्ज किए गए निष्कर्ष अभेद्य और अचूक हैं। तलाक के लिए डिक्री का दूसरा आधार धारा 13(1)(i a) और 13(1)(i b) के तहत एक या अधिक वर्ष की अवधि के लिए परित्याग के आधार पर है, कि वे एक साथ नहीं रह पाए हैं"।

हाईकोर्ट ने हलफनामे पर पति के बयान पर गौर किया, जिसमें उसने दावा किया था कि उसकी पत्नी, शादी के बाद केवल दो बार ससुराल आई और केवल 12-15 दिनों तक वहां रही और "गर्भवती होने पर उसे बताए बिना अपने मायके चली गई और वापस आने से इनकार कर दिया", यह कहते हुए कि वह 2017 से अपने माता-पिता के साथ रह रही थी।

हाईकोर्ट ने पति की इस दलील पर भी गौर किया कि मामले की जानकारी होने के बाद भी वह अदालत के सामने पेश नहीं हुई।

पीठ ने महिला की अपील खारिज करते हुए कहा, "परित्याग के आधार को प्रमाणित करने के लिए प्रस्तुत साक्ष्य अपीलकर्ता (पत्नी) के अप्रतिबंधित साक्ष्य से भी सिद्ध हो चुके हैं।"

 

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