SGSITS और इसरो मिलकर तैयार करेंगे नैनो सैटेलाइट

इंदौर। इंदौर का श्री गोविंदराम सेकसरिया प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान संस्थान (एसजीएसआइटीएस) भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के साथ नैनो सैटेलाइट तैयार करेगा। इस पर काम करने के लिए संस्थान ने बेंगलुरू के पीईएस विश्वविद्यालय से समझौता किया है। यह विश्वविद्यालय इसरो के साथ मिलकर नैनो सैटेलाइट भेज चुका है और अब एसजीएसआइटीएस को तकनीकी सलाह देगा।
इसरो के स्पेस इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोग्राम आफिस के एसोसिएट निदेशक जीवन कुमार पंडित संस्थान में आए थे। उनके साथ संस्थान के अधिकारियों ने बैठक कर सैटेलाइट तैयार करने की रूपरेखा पर बात की। इस काम में सेंटर फार रिमोट सेंसिंग एवं सैटेलाइट टेक्नोलाजी (सीआरएसएसटी) और इंडियन सोसाइटी फार रिमोर्ट सेंसिंग इंदौर चैप्टर (आइएसआरएस) मदद करेंगे। जीवन कुमार पंडित ने बताया कि भारत सरकार देश में सैटेलाइट कार्यक्रमों को प्रोत्साहित कर रही है और इसमें सार्वजनिक और निजी दोनों तरह के संस्थानों को सैटेलाइट तकनीक पर काम करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। इस पर कार्य करने के लिए इसरो के पास सभी आधुनिक साधन मौजूद हैं। इस समय इसरो के साथ कई युवा जुड़कर काम कर रहे हैं।
एसजीएसआइटीएस, आइआइटी इंदौर और अन्य संस्थान भी अगर सैटेलाइट तकनीक पर काम करना चाहते हैं तो वे इसरो को प्रस्ताव भेज सकते हैं। एसजीएसआइटीएस के निदेशक प्रो. राकेश सक्सेना ने बताया हम 2019 से नैनो सैटेलाइट तैयार करने पर काम कर रहे हैं, लेकिन कोरोना महामारी के कारण इस काम को बीच में रोकना पड़ा था। अब फिर से इसे गति दी जा रही है। आइएसआरएस इंदौर चैप्टर के अध्यक्ष डा. सिद्धार्थ के सोनी का कहना है कि दो तरह की योजना है जिसमें नैनो और सूटकेस सैटेलाइट शामिल हैं। नैनो सैटेलाइट पृथ्वी की परिधि के बाहर भेजा जाएगा और सूटकेस सैटेलाइट जमीन पर स्थित रहता है। इसमें करीब एक करोड़ रुपये की लागत आएगी।
स्पेस तकनीकी में अपार संभावनाएं
जीवन कुमार पंडित ने बताया कि हम विद्यार्थियों को बता रहे हैं कि किस तरह से इस क्षेत्र में आ सकते हैं। हमारी कोशिश है कि भारत के युवा सैटेलाइट बनाने के लिए आगे आएं। वे भारत के एलन मस्क बने। भारत सरकार स्पेस रिफार्म पर कार्य कर रही है। हमने इसरो की सुविधाएं स्टार्टअप के लिए खोल दी हैं। अगर कोई काम करना चाहता है तो इसरो से संपर्क कर सकते हैं। बिना लाभ- हानि के उन्हें काम करने की आजादी दे रहे हैं। बस जो रखरखाव का पैसा होता है वह देना होता है। हमारे यहां कई स्टार्टअप काम कर रहे हैं। इसमें स्काईरूट, एयरोस्पेस और अन्य नाम शामिल हैं। सैटेलाइट जब स्पेस में जाता है तो तापमान असामान्य रहता है। कई रेडिएशन भी होते हैं। पृथ्वी से 80 किलोमीटर के बाहर वैक्यूम और कई तरह की परिस्थितियां होती हैं। ऐसे में किसी भी संस्थान के लिए सैटेलाइट बनाने के लिए साधन जुटाना मुश्किल होता है।

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